INTRESTED STORY

 दुनिया को शून्य की समझ देने वाले
आर्यभट्ट की ही देन है कि सैकड़ों सालों तक भारत ने दुनिया का गणित के क्षेत्र में नेतृत्व
किया. आज खगोलविज्ञान में दुनिया ने जितनी भी उपलब्धियां हासिल की हैं उसमें आर्यभट्ट का योगदान सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण माना जाता है. उन्हीं की देन है कि आज खगोलविज्ञान नए-नए शोध कर रहा है.

◆आर्यभट्ट का जीवन:-
आर्यभट्ट के जन्मकाल को लेकर जानकारी उनके ग्रंथ आर्यभट्टीयम से मिलती है. इसी ग्रंथ में उन्होंने कहा है कि “कलियुग के 3600 वर्ष बीत चुके हैं और मेरी आयु 23 साल की है, जबकि मैं यह ग्रंथ लिख रहा हूं.” भारतीय ज्योतिष की परंपरा के अनुसार कलियुग का आरंभ ईसा पूर्व 3101 में हुआ था. इस हिसाब से 499 ईस्वी में आर्यभट्टीयम की रचना हुई. इस लिहाज से आर्यभट्ट का जन्म 476 ईस्वी में हुआ माना जाता है. लेकिन उनके जन्मस्थान के बारे में मतभेद है. कुछ विद्वानों का कहना है कि इनका जन्म नर्मदा और गोदावरी के बीच के
किसी स्थान पर हुआ था, जिसे संस्कृत साहित्य में अश्मक देश के नाम से लिखा गया है। अश्मक की पहचान एक ओर जहाँ कौटिल्य के “अर्थशास्त्र” के विवेचक आधुनिक महाराष्ट्र के रूप मे करते हैं, वहीं प्राचीन बौद्ध स्रोतों के अनुसार अश्मक अथवा अस्सक दक्षिणापथ में स्थित था. कुछ अन्य स्रोतों से इस देश को सुदूर उत्तर में माना जाता है, क्योंकि अश्मक ने ग्रीक आक्रमणकारी सिकन्दर (Alexander, 4 BC) से युद्ध किया था.

◆आर्यभट्ट की शिक्षा:-
माना जाता है कि आर्यभट्ट की उच्च शिक्षा कुसुमपुर में हुई और कुछ समय के लिए वह वहां रहे भी थे. हिंदू तथा बौद्ध:परंपरा के साथ-साथ भास्कर ने कुसुमपुर को पाटलीपुत्र बताया जो वर्तमान पटना के रूप में जाना जाता है. यहाँ पर अध्ययन का एक महान केन्द्र, नालन्दा विश्वविद्यालय स्थापित
था और संभव है कि आर्यभट्ट इसके खगोल वेधशाला के कुलपति रहे हों. ऐसे प्रमाण हैं कि आर्यभट्ट-सिद्धान्त में उन्होंने ढेरों खगोलीय उपकरणों का वर्णन किया है.

◆आर्यभट्ट के कार्य:-
आर्यभट्ट गणित और खगोल विज्ञान पर अनेक ग्रंथों के लेखक हैं, जिनमें से कुछ खो गए हैं. उनकी प्रमुख कृति, आर्यभट्टीयम, गणित और खगोल विज्ञान का एक संग्रह है, जिसे भारतीय गणितीय साहित्य में बड़े पैमाने
पर उद्धृत किया गया है, और जो आधुनिक समय में भी अस्तित्व में है. आर्यभट्टीयम के गणितीय भाग में अंकगणित, बीजगणित, सरल त्रिकोणमिति और गोलीय त्रिकोणमिति शामिल हैं. इसमें निरंतर भिन्न (कॅंटीन्यूड फ़्रेक्शन्स), द्विघात समीकरण(क्वड्रेटिक इक्वेशंस), घात
श्रृंखला के योग(सम्स ऑफ पावर सीरीज़) और जीवाओं की एक तालिका(टेबल ऑफ साइंस) शामिल हैं.

◆आर्यभट की रचना:-
आर्यभट के लिखे तीन ग्रंथों की जानकारी आज भी उपलब्ध है. दशगीतिका, आर्यभट्टीयम और तंत्र लेकिन जानकारों की मानें तो उन्होंने और एक ग्रंथ लिखा था- ‘आर्यभट्ट सिद्धांत‘. इस समय उसके केवल 34 श्लोक ही मौजूद हैं. उनके इस ग्रंथ का सातवें दशक में व्यापक उपयोग होता था. लेकिन इतना उपयोगी ग्रंथ
लुप्त कैसे हो गया इस विषय में कोई निश्चित जानकारी नहीं मिलती. आर्यभट्ट ने गणित और खगोलशास्त्र में और भी बहुत से कार्य किए. अपने द्वारा किए गए कार्यों से इन्होंने कई बड़े-बड़े वैज्ञानिकों को नए रास्ते दिए. भारत में
इनके नाम पर कई संस्थान खोले गए हैं जिसमें
कई तरह के शोध कार्य किए जाते है
हजारों साल पहले ऋषियों के आविष्कार, पढ़कर रह जाएंगे हैरान |

असाधारण या यूं कहें कि प्राचीन वैज्ञानिक ऋषि-मुनियों द्वारा किए आविष्कार व उनके द्वारा उजागर रहस्यों को जिनसे आप भी अब तक अनजान होंगे –

महर्षि दधीचि -
महातपोबलि और शिव भक्त ऋषि थे। वे संसार के लिए कल्याण व त्याग की भावना रख वृत्तासुर का नाश करने के लिए अपनी अस्थियों का दान करने की वजह से महर्षि दधीचि बड़े पूजनीय हुए। इस संबंध में पौराणिक कथा है कि एक बार देवराज इंद्र की सभा में देवगुरु बृहस्पति आए। अहंकार से चूर इंद्र गुरु बृहस्पति के सम्मान में उठकर खड़े नहीं हुए। बृहस्पति ने इसे अपना अपमान समझा और देवताओं को छोड़कर चले गए। देवताओं ने विश्वरूप को अपना गुरु बनाकर काम चलाना पड़ा, किंतु विश्वरूप देवताओं से छिपाकर असुरों को भी यज्ञ-भाग दे देता था। इंद्र ने उस पर आवेशित होकर उसका सिर काट दिया। विश्वरूप त्वष्टा ऋषि का पुत्र था। उन्होंने क्रोधित होकर इंद्र को मारने के लिए महाबली वृत्रासुर को पैदा किया। वृत्रासुर के भय से इंद्र अपना सिंहासन छोड़कर देवताओं के साथ इधर-उधर भटकने लगे।
ब्रह्मादेव ने वृत्तासुर को मारने के लिए वज्र बनाने के लिए देवराज इंद्र को तपोबली महर्षि दधीचि के पास उनकी हड्डियां मांगने के लिये भेजा। उन्होंने महर्षि से प्रार्थना करते हुए तीनों लोकों की भलाई के लिए अपनी हड्डियां दान में मांगी। महर्षि दधीचि ने संसार के कल्याण के लिए अपना शरीर दान कर दिया। महर्षि दधीचि की हड्डियों से वज्र बना और वृत्रासुर मारा गया। इस तरह एक महान ऋषि के अतुलनीय त्याग से देवराज इंद्र बचे और तीनों लोक सुखी हो गए।

आचार्य कणाद -
कणाद परमाणुशास्त्र के जनक माने जाते हैं। आधुनिक दौर में अणु विज्ञानी जॉन डाल्टन के भी हजारों साल पहले आचार्य कणाद ने यह रहस्य उजागर किया कि द्रव्य के परमाणु होते हैं।

भास्कराचार्य -
आधुनिक युग में धरती की गुरुत्वाकर्षण शक्ति (पदार्थों को अपनी ओर खींचने की शक्ति) की खोज का श्रेय न्यूटन को दिया जाता है। किंतु बहुत कम लोग जानते हैं कि गुरुत्वाकर्षण का रहस्य न्यूटन से भी कई सदियों पहले भास्कराचार्यजी ने उजागर किया। भास्कराचार्यजी ने अपने ‘सिद्धांतशिरोमणि’ ग्रंथ में पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के बारे में लिखा है कि ‘पृथ्वी आकाशीय पदार्थों को विशिष्ट शक्ति से अपनी ओर खींचती है। इस वजह से आसमानी पदार्थ पृथ्वी पर गिरता है’।

आचार्य चरक -
‘चरकसंहिता’ जैसा महत्तवपूर्ण आयुर्वेद ग्रंथ रचने वाले आचार्य चरक आयुर्वेद विशेषज्ञ व ‘त्वचा चिकित्सक’ भी बताए गए हैं। आचार्य चरक ने शरीरविज्ञान, गर्भविज्ञान, औषधि विज्ञान के बारे में गहन खोज की। आज के दौर की सबसे ज्यादा होने वाली डायबिटीज, हृदय रोग व क्षय रोग जैसी बीमारियों के निदान व उपचार की जानकारी बरसों पहले ही उजागर की।

भारद्वाज -
आधुनिक विज्ञान के मुताबिक राइट बंधुओं ने वायुयान का आविष्कार किया। वहीं हिंदू धर्म की मान्यताओं के मुताबिक कई सदियों पहले ऋषि भारद्वाज ने विमानशास्त्र के जरिए वायुयान को गायब करने के असाधारण विचार से लेकर, एक ग्रह से दूसरे ग्रह व एक दुनिया से दूसरी दुनिया में ले जाने के रहस्य उजागर किए। इस तरह ऋषि भारद्वाज को वायुयान का आविष्कारक भी माना जाता है।


कण्व -
वैदिक कालीन ऋषियों में कण्व का नाम प्रमुख है। इनके आश्रम में ही राजा दुष्यंत की पत्नी शकुंतला और उनके पुत्र भरत का पालन-पोषण हुआ था। माना जाता है कि उसके नाम पर देश का नाम भारत हुआ। सोमयज्ञ परंपरा भी कण्व की देन मानी जाती है।

कपिल मुनि -
भगवान विष्णु का पांचवां अवतार माने जाते हैं। इनके पिता कर्दम ऋषि थे। इनकी माता देवहूती ने विष्णु के समान पुत्र चाहा। इसलिए भगवान विष्णु खुद उनके गर्भ से पैदा हुए। कपिल मुनि 'सांख्य दर्शन' के प्रवर्तक माने जाते हैं। इससे जुड़ा प्रसंग है कि जब उनके पिता कर्दम संन्यासी बन जंगल में जाने लगे तो देवहूती ने खुद अकेले रह जाने की स्थिति पर दुःख जताया। इस पर ऋषि कर्दम देवहूती को इस बारे में पुत्र से ज्ञान मिलने की बात कही। वक्त आने पर कपिल मुनि ने जो ज्ञान माता को दिया, वही 'सांख्य दर्शन' कहलाता है।
इसी तरह पावन गंगा के स्वर्ग से धरती पर उतरने के पीछे भी कपिल मुनि का शाप भी संसार के लिए कल्याणकारी बना। इससे जुड़ा प्रसंग है कि भगवान राम के पूर्वज राजा सगर ने द्वारा किए गए यज्ञ का घोड़ा इंद्र ने चुराकर कपिल मुनि के आश्रम के करीब छोड़ दिया। तब घोड़े को खोजते हुआ वहां पहुंचे राजा सगर के साठ हजार पुत्रों ने कपिल मुनि पर चोरी का आरोप लगाया। इससे कुपित होकर मुनि ने राजा सगर के सभी पुत्रों को शाप देकर भस्म कर दिया। बाद के कालों में राजा सगर के वंशज भगीरथ ने घोर तपस्या कर स्वर्ग से गंगा को जमीन पर उतारा और पूर्वजों को शापमुककिया।

पतंजलि -
आधुनिक दौर में जानलेवा बीमारियों में एक कैंसर या कर्करोग का आज उपचार संभव है। किंतु कई सदियों पहले ही ऋषि पतंजलि ने कैंसर को रोकने वाला योगशास्त्र रचकर बताया कि योग से कैंसर का भी उपचार संभव है।

शौनक -
वैदिक आचार्य और ऋषि शौनक ने गुरु-शिष्य परंपरा व संस्कारों को इतना फैलाया कि उन्हें दस हजार शिष्यों वाले गुरुकुल का कुलपति होने का गौरव मिला। शिष्यों की यह तादाद कई आधुनिक विश्वविद्यालयों तुलना में भी कहीं ज्यादा थी।

महर्षि सुश्रुत -
ये शल्यचिकित्सा विज्ञान यानी सर्जरी के जनक व दुनिया के पहले शल्यचिकित्सक
(सर्जन) माने जाते हैं। वे शल्यकर्म या आपरेशन में दक्ष थे। महर्षि सुश्रुत द्वारा लिखी गई ‘सुश्रुतसंहिता’ ग्रंथ में शल्य चिकित्सा के बारे में कई अहम ज्ञान विस्तार से बताया है। इनमें सुई, चाकू व चिमटे जैसे तकरीबन 125 से भी ज्यादा शल्यचिकित्सा में जरूरी औजारों के नाम और 300 तरह की शल्यक्रियाओं व उसके पहले की जाने वाली तैयारियों, जैसे उपकरण उबालना आदि के बारे में पूरी जानकारी बताई गई है।
जबकि आधुनिक विज्ञान ने शल्य क्रिया की खोज तकरीबन चार सदी पहले ही की है। माना जाता है कि महर्षि सुश्रुत मोतियाबिंद, पथरी, हड्डी टूटना जैसे पीड़ाओं के उपचार के लिए शल्यकर्म यानी आपरेशन करने में माहिर थे। यही नहीं वे त्वचा बदलने की शल्यचिकित्सा भी करते थे।

वशिष्ठ -
वशिष्ठ ऋषि राजा दशरथ के कुलगुरु थे। दशरथ के चारों पुत्रों राम, लक्ष्मण, भरत व शत्रुघ्न ने इनसे ही शिक्षा पाई। देवप्राणी व मनचाहा वर देने वाली कामधेनु गाय वशिष्ठ ऋषि के पास ही थी।

विश्वामित्र -
ऋषि बनने से पहले
विश्वामित्र क्षत्रिय थे। ऋषि वशिष्ठ से कामधेनु गाय को पाने के लिए हुए युद्ध में मिली हार के बाद तपस्वी हो गए। विश्वामित्र ने भगवान शिव से अस्त्र विद्या पाई। इसी कड़ी में माना जाता है कि आज के युग में प्रचलित प्रक्षेपास्त्र या मिसाइल प्रणाली हजारों साल पहले विश्वामित्र ने ही खोजी थी।
ऋषि विश्वामित्र ही ब्रह्म गायत्री मंत्र के दृष्टा माने जाते हैं। विश्वामित्र का अप्सरा मेनका पर मोहित होकर तपस्या भंग होना भी प्रसिद्ध है। शरीर सहित त्रिशंकु को स्वर्ग भेजने का चमत्कार भी विश्वामित्र ने तपोबल से कर दिखाया।

महर्षि अगस्त्य -
वैदिक मान्यता के मुताबिक मित्र और वरुण देवताओं का दिव्य तेज यज्ञ कलश में मिलने से उसी कलश के बीच से तेजस्वी महर्षि अगस्त्य प्रकट हुए। महर्षि अगस्त्य घोर तपस्वी ऋषि थे। उनके तपोबल से जुड़ी पौराणिक कथा है कि एक बार जब समुद्री राक्षसों से प्रताड़ित होकर देवता महर्षि अगस्त्य के पास सहायता के लिए पहुंचे तो महर्षि ने देवताओं के दुःख को दूर करने के लिए समुद्र का सारा जल पी लिया। इससे सारे राक्षसों का अंत हुआ।

गर्गमुनि -
गर्ग मुनि नक्षत्रों के खोजकर्ता माने जाते हैं। यानी सितारों की दुनिया के जानकार। ये गर्गमुनि ही थे, जिन्होंने श्रीकृष्ण एवं अर्जुन के के बारे नक्षत्र विज्ञान के आधार पर जो कुछ भी बताया, वह पूरी तरह सही साबित हुआ। कौरव-पांडवों के बीच महाभारत युद्ध विनाशक रहा। इसके पीछे वजह यह थी कि युद्ध के पहले पक्ष में तिथि क्षय होने के तेरहवें दिन अमावस थी। इसके दूसरे पक्ष में भी तिथि क्षय थी। पूर्णिमा चौदहवें दिन आ गई और उसी दिन चंद्रग्रहण था। तिथि-नक्षत्रों की यही स्थिति व नतीजे गर्ग मुनिजी ने पहले बता दिए थे।

बौद्धयन -
भारतीय त्रिकोणमितिज्ञ के रूप में जाने जाते हैं। कई सदियों पहले ही तरह-तरह के आकार-प्रकार की यज्ञवेदियां बनाने की त्रिकोणमितिय रचना-पद्धति बौद्धयन ने खोजी। दो समकोण समभुज चौकोन के क्षेत्रफलों का योग करने पर जो संख्या आएगी, उतने क्षेत्रफल का ‘समकोण’ समभुज चौकोन बनाना और उस आकृति का उसके क्षेत्रफल के समान के वृत्त में बदलना, इस तरह के कई मुश्किल सवालों का जवाब बौद्धयन ने आसान बनाया।
એક સુંદર સવારે એક માણસ હાથમાં કોફીનો કપ લઇને
દૈનિક સમાચારપત્ર વાંચી રહ્યો હતો. અચાનક એનુ
ધ્યાન શ્રધ્ધાંજલી વિભાગની એક શ્રધ્ધાંજલી નોંધ
પર ગયુ એ ચોંકી ઉઠ્યો કારણ કે નોંધમાં એનુ જ નામ
હતું. કોઇની ભુલથી જ નામ છપાયુ હશે કારણ કે એ
તો જીવતો હતો અને પોતાની જ મૃત્યુનોંધ
વાંચી રહ્યો હતો. એણે સમાચારપત્રના કાર્યાલય પર
ફોન કર્યો તો સામે જવાબદાર વ્યકતિએ ભુલ
સ્વિકારીને માફી માંગી.
આ માણસને થયુ કે હું આખી નોંધ વાંચુ જેથી મને ખબર પડે
કે મારા મૃત્યુ બાદ લોકો મને કેવી રીતે ઓળખે છે.
મૃત્યુનોંધમાં એના વિષે લખાયેલ હતુ કે “
મોતના સોદાગરની ધરતી પરથી વિદાય.” . આ
શબ્દો વાંચતાની સાથે જ એ માણસનું ચિત ચકરાવે
ચડ્યુ. ‘ શું દુનિયા મને મારા મૃત્યુ બાદ
મોતના સોદાગર તરિકે ઓળખશે? હું એવું બિલકુલ
નથી ઇચ્છતો કે મારા મૃત્યુ બાદ દુનિયા મને આ રીતે
ઓળખે. મારે દુનિયાને મારો પરિચય આવો નહી કંઇક
જુદો જ આપવો છે.’
પોતાની તમામ સંપતિ દાનમાં આપીને એક
ટ્રસ્ટની રચના કરી. દાનની બધી જ રકમમાંથી એક
ભંડોળ ઉભુ કર્યુ અને એ ભંડોળ
પરના વ્યાજની આવકમાંથી પ્રતિ વર્ષ વિશ્વનું
સૌથી મોટુ ઇનામ આપવાની વ્યવસ્થા કરાવી. જગત
માટે કંઇક કરનાર વિવિધ ક્ષેત્રના લોકોને આ ઇનામ
આપવાની શરુઆત થઇ જેના પરિણામે એ
માણસની ખરેખર વિદાય થયા પછી દુનિયા એને
મોતના સોદાગર તરિકે નહી પરંતું નોબેલ પ્રાઇઝ
ના સ્થાપક તરિકે ઓળખે છે.
આ માણસ હતો , ડાઇનામાઇટની શોધ કરનાર આલ્ફ્રેડ
નોબેલ છે.
જો ખરેખર આપણે જીવતા હોઇએ
તો અંતરદ્રષ્ટી કરવી અને વિચારવું કે મારા દ્વારા જે
કાર્ય થઇ રહ્યા છે એ કાર્યને કારણે લોકો મને
મારી વિદાય બાદ કેવી રીતે ઓળખશે ? જવાબ ન ગમે
તેવો હોઇ તો કામ બદલવા અને ગમે તેવો હોય
તો કામને વિસ્તારવું....!!

Post a Comment